Monday, March 9, 2009

होली की रंगबिरंगी शुभकामनाएँ।


रंग उड़ाये पिचकारी

रंग से रंग जाये दुनिया सारी

होली के रंग आपके जीवन को रंग दें


ये शुभकामना है हमारी।

होली की रंगबिरंगी शुभकामनाएँ।



पौड़ी गढ़वाल ग्रुप

नई दिल्ली - होली गायन





Wednesday, February 4, 2009

बोलियाँ स्वतंत्र रह कर ही विकसित हुई

डॉ. बिहारी लाल जलंधरी जी

भाषा पर कार्यरत किसी भी भाषा शास्त्री को भाषा और बोली के बीच अन्तर ज्ञात होने का कोई पारिभाषिक आधार प्राप्त नहीं होता. भाषा या बोली के लिए पारंपरिक बोधगम्यता का निरिक्षण एक ब्यवहारिक आधार है! भाषा के आधार पर प्रयत्न करने पर एक भाषा को बोलनेवाला दूसरी संभाषा को समझ लेता है, परन्तु बिना सीखे हुए वह उस भाषा को नहीं समझ पता जिस भाषा से वह कोसो दूर है, एक भाषाई क्षेत्र में कभी कभी इतनी बिभिन्न बोलियाँ मिलती हैं, जो वास्ताबिक रूप से एक दूसरे से भिन्न होती हैं, कभी इन बोलियों को समझना इतना कठिन हो जाता है तथा दुर्गम स्थानों में ऐसे समुदाय मिल जाते हैं! जो एक दूसरे की बोली को नहीं समझ पाते हैं, इसमे क्रमागत बोलियाँ एक दूसरे से इतने कम अंशों में भिन्न होती है, कि प्रतेक स्थान पर भाषिक संप्रेक्षण सम्बभ होता है, ऐसे दशा में इन सभी निकटस्थ बोलीओं को क्या एक ही मान लेना चाहिए, या ऐसी स्तिथि में इनको एक भाषा के रूप में मानना उचित नहीं होगा, इस परिस्तिथि से एक निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि भाषा और उसकी बोलियों का अन्तर अंशों का होता है! प्रकार का नहीं, भाषा शास्त्रीय अध्ययन में बोलियों और भाषाओँ के पारस्परिक सम्बन्ध विषयक अधिक शुद्ध धारणाओं को भी कम महत्वा नहीं दिया जा सकता, इससे यह बात स्पस्ट हो जाती है कि बिभिन्न प्रादेशिक बोलियाँ स्वतंत्र रह कर ही विकसित हुई
हैं, उन्हें अन्य भाषाओँ के समक्ष उसके साहित्य को विकृत रूप की संज्ञा नहीं दी जा सकती, ये भाषा साहित्य अपनेआप में प्रणालीबद्ध है, जिस प्रादेशिक स्वतंत्र बोली में साहित्य सर्जन होता रहा उनकी ब्याकर्निक संरचना, उच्चारण एबम शब्दावली से सम्बद्ध उनकी अपनी ही कुछ नियमित्तायाँ हैं, जिन प्रसंगों से वह स्वतंत्र प्रादेशिक बोली प्रयुक्त होती है वह उस क्षेत्र के पारस्परिक आदान प्रदान का साधन के रूप में पूर्णता उपयुक्त होती है, वास्ताबिक रूप में भाषा और उसके निकटस्थ बोलीओं में पाए जाने वाले अन्तर भाषात्मक अन्तर न होकर प्रकारात्मक अन्तर होते हैं, जो उस क्षेत्र की जलवायु पर निर्भर करते हैं, इस सम्बन्ध में यदि शुद्ध भाषा वैज्ञानिक द्रष्टि से देखा जाय तो परम्परागत रूप से स्रेस्थ भाषाएँ केवल उस स्थान विशेष की बोलियाँ ही होती हैं जो ऐतिहासिक घटनाक्रम के कारण राजनितिक और सांस्कृतिक द्रष्टि से उस क्षेत्र विशेष में महत्व प्राप्त कर गई, निसंदेह किसी विशिष्ठ स्वतंत्र बोली के साहित्य प्रकाशन दर्शन तथा उसके अनेक प्रयोजनों और ब्यापक रूपों में प्रयोग का परिणाम यहाँ होता है कि उस क्षेत्र विशेष की बोली की शब्दावली उन सभी आवश्यक विभेदों के साथ अत्यधिक ब्यापक हो जाती है, जिसके द्वारा वह अपने स्वतंत्र प्रयोग क्षेत्र में अपने नए रूप में संतोष जनक ढंग से काम कर सकती है, इस विचार के सम्बन्ध में कुछ तथ्य भिन्न हो सकते हैं! जो किसी जाती विशेष द्वारा प्रयुक्त बोली के सम्बन्ध में कहे जा सकते हैं, जो केवल अपनी जाती तक ही सीमित रहती है, देश में सामान्यतया सभी आदर्श कही जाने वाली भाषाओँ का जन्म भी उन सभी स्वतंत्र बोलियों से हुआ है, जो समाज के प्रतिष्ठित व सबल वर्ग द्वारा बोली जाती है या प्रयुक्त की जाती है या कहीं न कही उसे राजनितिक या प्रसाशनिक संरक्षण प्राप्त था, यह वास्थाबिकता से परे नहीं है की जिस स्वतंत्र बोली को सबल वर्ग व राजतन्त्र का संरक्षण प्राप्त हो हुआ वह अवश्य ही उस प्रदेश की प्रादेशिक भाषा या आदर्श प्रतिष्ठित भाषा बनकर उभरी!


यहाँ विश्व के चर्चित भाषा वैज्ञानिकों के अनुभव को बाँटना आवश्यक है, भाषा विज्ञानं की शाखा के अंतर्गत प्रादेशिक स्वतंत्र बोली पर हुए एक अनुसन्धान के अंतर्गत एक बात अवश्य स्पस्ट हुई है, कि एक ही स्वतंत्र बोली की उपबोलियों या विबिध बोलियों के बीच विधेयक रेखा खींच पाना असंभव है, विश्व
या देश के उन भागों में या जहाँ राजनीतिक सीमा में सामान्यतय परिवर्तन होते रहते हैं, या जहाँ आदान प्रदान की सीमाएं एक दूसरे देश की सीमा को लाँघ जाती हैं, वहां किसी भाषा विशेष से समझी जाने वाली बोलियाँ भी किसी अन्य भाषा की बोली के सामान ही लगती हैं, क्योँ कि भाषा के शब्दों के आदान प्रदान से स्थानीय भाषा में कुछ शब्द इस प्रकार घुलमिल जाते हैं, जिस को उस भाषा या बोली से अलग करना असंभव हो जाता हैं, यहीं यह कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा की दूर दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले रहवासियों की बोली का कोई स्वतंत्र परिनिस्थित रूप नहीं होता, उनकी बोली को हमेशा एक बोली के रूप में लिया जा सकता है, भाषा के सम्बन्ध में यह एक ऐसा द्रिस्थिकों है जो उस स्वतंत्र बोली के लिखित और साहित्यिक रूप पर आद्हारित है, एक स्वतंत्र बोली के लिए राजनितिक दृष्ठी से यह समाधान प्रस्तुत किया जा सकता कि उस बोली को उस परिवेश में शासन कार्य में प्रयोग किए जाने के लिए किया जाए, जहाँ एक स्वतंत्र बोली को इस प्रकार का संरक्षण प्राप्त हो गया वहां की बोली निशंदेह वहां की परिनिस्थित भाषा या प्रादेशिक भाषा रूप धारण कर लेती है!


प्रायः यह देखा गया है कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ को छोड़कर मध्य हिमाली स्वतंत्र बोलियों को राजनितिक व सांस्कृतिक विराशत के रूप में संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ है, इन भाषाओँ को पूरब में यदि राजतन्त्र का संरक्षण मिला होता तो निशंदेह यह वर्तमान में एक परिनिस्थित भाषा के रूप में उभर कर उत्तराखंड की प्रादेशिक भाषा बन गई होती, मध्य हिमाली क्षेत्र के सम्बन्ध में राजनितिक उथल पुथल माने तो यहाँ केवल गोरखों का ही अधिपत्य रहा, उसके बाद बिर्टिश हुकूमत ने अपने पैर पसारे, परन्तु जो पौराणिक समय से रियासत चलती आ रही थी, उसके अवशेष तो वर्तमान में भी अपनी जड़े जमाये बैठी हैं, परन्तु उस रियाशतदार ने भी अपनी भाषा के संरक्षण के बारे में नहीं सोचा, उसने अपनी स्थानीय भाषा को स्वतंत्र रूप से अपने राज्य की राज काज की भाषा के रूप में प्रयोग नहीं किया, नाही अपने राज्य के शिक्षण संस्थानों में इसमे पठान पठान की ब्यवस्था की, यदि यहाँ की स्वतंत्र बोली को स्वतंत्र रूप से राज काज और पठान पाठन में प्रयोग किया जाता तो यहाँ की भाषा और उसकी लिपि भी पुर्बोत्तर के छोटे छोटे राज्यों के समकक्ष होती और उसमे रचित साहित्य एक परिनिस्थित साहित्य होता, वर्तमान में आवश्यकता है यहं की स्वतंत्र बोली को राजनितिक संरक्षण की!

लेखक : डॉ. बिहारीलाल जलंधरी

भाषा का अस्तित्व

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किसी भी क्षेत्र की बोलियाँ भाषा नहीं होती, भाषा का अस्तित्व लिपि पर निर्भर करता हैं, जिस लिपि में उस क्षेत्र की बोली में साहित्य लिखा जाता है, वही एक दिन सुद्रढ़ भाषा का रूप धारण कर लेती है, बोलियाँ किसी क्षेत्र विशेष की संस्कृति पर निर्भर करती हैं, जब वह बोली पिलिबध की जाती है तो उस क्षेत्र की पह्के सम्पर्क भाषा बनती है और फिर भाषा का रूप धर लेती है!

वर्तमान समय में भारत देश में कई भाषाएँ है, पर क्षेत्रीय भाषा जो पहले बोली थी, जिनपर उस क्षेत्र की संस्कृति की झलक दिखती थी वह आज सकारात्मक रूप से भाषा का रूप धारण कर चुकी है, क्योँ की उस बोली को बोलनेवालों ने अपनी बोली की भाषा के रूप में परिणत करने के लिए उस बोली को लिपिबद्ध करने के लिए स्थानीय भाषा के ध्वनि आखरों को स्थान दिलाने के लिए अदम्य साहस किया, बोली अपने ध्वनियों के साथ लिपिबद्दा होने के साथ संपर्क भाषा में प्रयुक्त होकर उस क्षेत्र की मान्यता प्राप्त भाषा बन गई, इसी तरज पर भारत देस की कई बोलीओं ने अपने स्थानीय ध्वनि आखरों के साथ लिपिबद्ध होने के बाद ही भाषा का दर्जा प्राप्त किया, भारत देस के संविधान में देखा गया है की भाषा के आधार पर कई रुके हुए कार्य पूरे हुए हैं, यह सर्ब विदित है की हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है, जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है!

भाषा हिन्दी है जिसे शाशन द्वारा राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है, राष्ट्र में राष्ट्रभाषा होने पर भी यह भाषा किशी के ऊपर थोपी नहीं गई है, भाषा एक ऐसा विषय है जिसे थोपा नहीं जा सकता, अपनी आवश्यकता के लिए भाषा को सीखना जरुरी हो जाता है, इस विषय के तरफ मानव अपनेआप आकर्षित हो जाता है, यह भाषा के विषय पर अपने भविष्य को तलाशने की बात है, परन्तु जब स्थानीय भाषा या मात्र भाषा की बात सामने आती है तो वहां कहीं कहीं अपनापन अवश्य जाता है, स्थानीय बोली और उसको लिपिबद्द करना उस बोली के बोलने वालों के ऊपर निर्भर करता है, एक क्षेत्र की कई बोलियाँ या भाषाएँ होती है, जिस प्रकार दक्षिण भारत की द्रविड़ भाषा की कई धराये हैं, इन भाषाओँ की अपनी अपनी लिपि भी है जो उस क्षेत्र विशेष की बोलीओं की उपस्तिथि के आधार पर ब्यंजित की गई हैं, यदि इसी प्रकार उतराखंड की भाषा गढ़वाली कुमौनी की लेखन शैली विकसित की जाय तो यह अतिशंयोक्ति नहीं होगी, बोली के मूल ध्वनि आखरों को चिन्हित करने से लिपि, भाषा के लिपिबद्ध होने उसमे साहित्य निर्माण के बाद वह समर्द्ध भाषा बनती है, किसी क्षेत्र की भाषा ही उस क्षेत्र के संस्कृति का विरत रूप है, यह भाषा ही उस क्षेत्र की संस्कृति को जीवित रखती है, जिस बोली में संस्कृति की झलक होती है यदि वह विलुप्तता की और अग्रसर हुई तो भविष्य में उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति नष्ट होने की सम्भावनाये रहती हैं, यही सांस्कृतिक संकट की संभावना उत्तराखंड में भी दीख रही हैं, जहाँ से लगातार पलायन हो रहा है, अन्य स्थानों पर लंबे अरसे ताड़ रहने के बाद ये लोग अपनी संस्कृति भूलते जा जाहे हैं, जिन परिवारों के सदस्यों ने उत्तराखंड में वर्षों से जाना आना छोड़ दिया क्या वह अपनी संस्कृति की सूझा बूझ रखते हैं, यह वर्तमान समय के लिए मंथन का विषय है, यह विषय केवल देव भूमि या देवभूमि परिवार का नहीं है, यह विषय उन लोगों का भी है जो अपनी मूलभूत संस्कृति से बिमुख हो रहे हैं, जो लोग अपनी मूल्भुई संस्कृति से बिमुख हो गए हैं, यह उनकी गलती नहीं, यह उस पूरे समाज की गलती है, जिसने निजी स्वार्थ को सर्बोपरी रखकर अपने समाज अपनी भाषा में लिए निश्वार्थ रूप से कम नहीं किया, इन लोगों द्वारा बड़ी बड़ी डिग्रियां ली गई पर यह लोग अपनी भाषा के लिए कार्य नहीं कर पाए, जिससे समाज के समुख अपनी भाषा की अलग पहिचान बने जा सकती!

आज समय गया है की हम सभी को अपनी मूल पहिचान के लिए कार्य करना हैं, यह कार्य कठिन अवश्य होगा परन्तु असंभव नहीं, दृढ इच्छा शक्ति यदि हमारे अंदर होगी तो निश्चित तोर पर उत्तराखंड की भाषा के लिए देवनागरी लिपि में गौ आखर जोड़कर इसका विस्तार कर उत्तराखंड की प्रादेशिक भाषा का दर्जा दिलाएंगे!

लेखक : डॉ. बिहारीलाल जलंधरी

भाषाई अस्मिता के लिए सोचे उत्तराखंडी समाज

डॉ. बिहारी लाल जलंधरी जी

किसी जीवंत संस्कृति का आएना भाषा ही होती है, भाषा के बिना कितना भी विकसित माना जाया एक अतिशयोक्ति ही माना जाएगा, संस्कृति की पहचान भाषा के पश्चात ही होती है, जहाँ भी संकृति शब्द का प्रयोग होता किया जाता है, उसके साथ यदि भाषा शब्द उसके अग्रज शब्द के साथ जोड़ा जाय तो वह हमेशा अपूर्ण रहेगा!

समाज में केवल संकृति की बात करना फूहड़पन ही कहा जाएगा, क्यूं की संस्कृति की ध्वज्बाहक भाषा ही मानी जाती है, आज के उत्तराखंडी समाज दो भागों में बांटता नजर रहा है, इन दोनों के बिच की दूरी चेतना के अभाव में कम होने की बजाय दिन प्रतिदिन बढती जा रही है, यह दूरी क्यों बढ़ रही है यह हम बखूबी से जानते है, हम इस दूरी को कम करने की हर सम्बभा कोशिश में हैं परन्तु हमें इस प्रकार का सशक्त माध्यम नहीं मिल रहा है, जिसके अंतर्गत हम इस दूरी को पता सके!


उत्तराखंडी समाज उत्तराखंड के अलावा देश के कोने कोने में अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के साथ साथ विदेशों में अपनी कीर्ति फैला रहा है, देश विदेश में बसे उत्तराखंडियों के मन में कही कही एक डर अवश्य होता है की जिस गढ़वाली कुमौनी को आज हम लोग बोल रहे है, क्या उसे हमारी आने वाली पीडी इसी प्रकार बोल पायेगी, इस और देश विदेश में बसने वाले उत्तराखंडियों का ध्यान ही नहीं है, अपितु उत्तराखंड के अंदर रहनेवाले विद्वानों ने भी इसे गहरे से लिया है, कई लोगों ने इसे बेकार की बात मानकर एक किनारे कर दिया, क्योंकि उन्हें केवल वर्तमान दिखाई दे रहा है, उनमे वर्तमान की सोच और आने वाली पीढी को दियेजाने वाले सरोकारों की सूजबूझ ही नहीं है, उदहारण के रूप में विदेश में होने वाले कार्य कर्म का का जिक्र करना आवशक होगो, जब मंच से विदेशी भाषा तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी के कर्म के संबोधन को तोड़ते हुए एक गायक की आवाज अपनी स्थानीय भाषा के लोकगीत के रूप में आती है, तो सभी का ध्यान अकग्र्चित होकर उस और एकटक हो जाता है, *आमा की दी माँ घुघती बंसा* गीत के सुरताल में वासताबिक रूप में क्या था, *मेरो गधों कु देश बावन गरहों कु देश* गीत ने आख़िर में सात समुद्र पर बसे उत्तराखंडियों को क्या संदेश दिया, *चम् चमकू घाम कान्थियोंमा हिवाळी डंडी अचंदी की बनी गेना* इन गीतों में आख़िर क्या है, क्या यह कबी की कल्पना है, या अपनी धरती से रू रू होने का साक्षात्कार, बहुत कम लोगों का इसकी मूल भावना की और ध्यान गया होगा, क्यों की केवल तीन घंटे का कार्यकर्म जिसमे केवल आधा घंटा ही बमुश्किल से इस कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने अपनी धरती से
साक्षात्कार होने का मोका मिला उस आधे घंटे ने पूरे तीन घंटे वसूल कर दिए, जो तीन गीत गढ़वाली कुमौनी भाषा के मूल ध्वनियों के साथ सुरताल में प्रस्तुत किए गए यह वासताबिक रूप में यहाँ की भाषा का ही कमल है, जिसने हजारों मील दूर बैठे उत्तराखंडियों को झुमने के लिए मजबूर कर दिया, यह भी भाषा का ही कमल है, जो आज के समय में प्रतीक मात्र बनती जा रही है!


आज का उत्तराखंडी उत्तराखंड के बहार के अलावा उत्तराखंड में स्वयं के घर में स्वयम को असहाय महसूश कर रहा है, क्योंकि उनको अपनी मात्र भाषा अपने घर में भी पराई लग रही है, क्योंकि उनका बचा जब प्राइमरी स्कूल से घर आता है तो वह पूरे वाक्य को आधा अपनी भाषा में बोलता है तो आधा दूसरी भाषा में, इस प्रकार की भाषा पर कभी उसके माँ उसका मजाक तक उड़ा देती हैं, तथा नाराज होने पर हंसते हुए पुचकारती भी है, किंतु उस बचे की मानसिकता उस समय कैसी रही होगी जब उसके बोलने पर उसका मजाक उडाया गया, उसके इस प्रकार की भाषा में बतियाने में उसकी कहाँ गलती है जो उसका मजाक उडाया गया, उसने तो वही कहा जो उसने सीखा, अपनी माँ के साथ रहा तो मात्र भासा सीखी, स्कूल में मास्टर जी ने दूसरी भाषा सिखाई, वास्ताबिक रूप में क्या यह स्थिति उन नोइनिहलों की दुधी के विकाश में सहायक सिद्ध होगी, जिनको कैन भी पूर्णता नहीं मिल प् रही है, और परोतोशिक के रूप में उन्हें हैसी का पात्र बनना पड़ रहा है, प्रश्न उठता है, की क्या उस बालक का बोद्धिक विकाश इच्छानुसार हो पाएगा!

उत्तराखंडी समाज आज अपनी भाषा के बिमुख क्यों हो रहा है, चाहते हुए भी इस और बढ्ता ही जा रहा है, राज्य आन्दोलन के दौरान एक सोच उभरकर आई थी की अपना राज्य होगा अपने लोग होंगे सब अपने पिछडेपन से अगड़ने की बात करेंगे, सभी क्षेत्र में स्वायत्ता होगी, स्वायत्ता भी मिली परन्तु कुछ गिनेचुने क्षेत्र में, जहाँ राज्य की संविधानिक आधार पर पहचान बनानी थी उस क्षेत्र में सोचने के लिए किसी के पास समय ही नहीं है, सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनेताओं नें जितने वादे किए परन्तु सत्ता की मदहोशी छाने पर वह यह सबकुछ भूल गए की इस राज्य की संस्कृति की ध्वजवाहक को भी जीवित रखना चाहिए!

इस संदर्भ में एक स्मरण का जिक्र करना अतिशयोक्ति होगा की सूबे के मुखिया ने अपने चुनाव की दौर में अपनी सठिया बोली के सिवा अन्य भाषा में बात तक नहीं की, लोगों की खूब सहानुभूति बटोरी, भाषा के भावनात्मक जुदौव से उनको अपने क्षेत्र में वाहवाही मिली, परन्तु जब अन्य स्थान पर उनका कर्यकर्ता अपनी भाषा में बात करने की हिम्मत जुटता है तो वह उनके ब्यवहार से अपनेआप को ठगा सा महसूस करते हैं,

यहाँ भाषा का प्रयोग आम भोली भाली जनता को भावनात्मक रूप में आकर्षित करने के लिए कियस गया, स्थानीय भाषा के प्रयोग से यदि आसानी से साध्य पूरा होता है, तो इसे अन्यथा नहीं लिया जाना
चाहिए, क्योंकि इस साध्य से एक उद्देश्य तो स्पष्ठ होता है की उतराखंड के स्थानीय लोग पानी भाषा को बहुत चाहते हैं, यदि सूबे का सिरमोर इस भाषा में बात कर रहा है तो वह अवश्य ही इसके विकाश के लिए अवश्य कार्य करेंगे, किंतु उत्तराखंड की दो मुख्य भाषा गढ़वाली कुमौनी के लिए आज तक किसी प्रकार की निति निर्धारित नहीं की गई, यहाँ तक स्तानीय भाषा में शोधकर्ताओं की आज दिनाक तक किसी ने खोजखबर तक नहीं की, यह उस भाषा के साथ साथ उस संस्क्तिती के लिए भी एक चुनोती बनकर उभरेगा, आज नहीं तो आने वाले कल में उत्तराखंड की भाषा संस्कृति की रक्षा के लिए लोग सड़कों पर उतरेंगे तथा अपनों से ही अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए लडेंगे, तब यह भाषाई आन्दोलन कहा जाएगा, जिसमे प्रतेक उत्तराखंडी अपनी भाषाई अस्मिता की रक्षा पहचान के लिए आगे आएंगे!

लेखक : डॉ. बिहारीलाल जलंधरी