Wednesday, February 4, 2009

बोलियाँ स्वतंत्र रह कर ही विकसित हुई

डॉ. बिहारी लाल जलंधरी जी

भाषा पर कार्यरत किसी भी भाषा शास्त्री को भाषा और बोली के बीच अन्तर ज्ञात होने का कोई पारिभाषिक आधार प्राप्त नहीं होता. भाषा या बोली के लिए पारंपरिक बोधगम्यता का निरिक्षण एक ब्यवहारिक आधार है! भाषा के आधार पर प्रयत्न करने पर एक भाषा को बोलनेवाला दूसरी संभाषा को समझ लेता है, परन्तु बिना सीखे हुए वह उस भाषा को नहीं समझ पता जिस भाषा से वह कोसो दूर है, एक भाषाई क्षेत्र में कभी कभी इतनी बिभिन्न बोलियाँ मिलती हैं, जो वास्ताबिक रूप से एक दूसरे से भिन्न होती हैं, कभी इन बोलियों को समझना इतना कठिन हो जाता है तथा दुर्गम स्थानों में ऐसे समुदाय मिल जाते हैं! जो एक दूसरे की बोली को नहीं समझ पाते हैं, इसमे क्रमागत बोलियाँ एक दूसरे से इतने कम अंशों में भिन्न होती है, कि प्रतेक स्थान पर भाषिक संप्रेक्षण सम्बभ होता है, ऐसे दशा में इन सभी निकटस्थ बोलीओं को क्या एक ही मान लेना चाहिए, या ऐसी स्तिथि में इनको एक भाषा के रूप में मानना उचित नहीं होगा, इस परिस्तिथि से एक निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि भाषा और उसकी बोलियों का अन्तर अंशों का होता है! प्रकार का नहीं, भाषा शास्त्रीय अध्ययन में बोलियों और भाषाओँ के पारस्परिक सम्बन्ध विषयक अधिक शुद्ध धारणाओं को भी कम महत्वा नहीं दिया जा सकता, इससे यह बात स्पस्ट हो जाती है कि बिभिन्न प्रादेशिक बोलियाँ स्वतंत्र रह कर ही विकसित हुई
हैं, उन्हें अन्य भाषाओँ के समक्ष उसके साहित्य को विकृत रूप की संज्ञा नहीं दी जा सकती, ये भाषा साहित्य अपनेआप में प्रणालीबद्ध है, जिस प्रादेशिक स्वतंत्र बोली में साहित्य सर्जन होता रहा उनकी ब्याकर्निक संरचना, उच्चारण एबम शब्दावली से सम्बद्ध उनकी अपनी ही कुछ नियमित्तायाँ हैं, जिन प्रसंगों से वह स्वतंत्र प्रादेशिक बोली प्रयुक्त होती है वह उस क्षेत्र के पारस्परिक आदान प्रदान का साधन के रूप में पूर्णता उपयुक्त होती है, वास्ताबिक रूप में भाषा और उसके निकटस्थ बोलीओं में पाए जाने वाले अन्तर भाषात्मक अन्तर न होकर प्रकारात्मक अन्तर होते हैं, जो उस क्षेत्र की जलवायु पर निर्भर करते हैं, इस सम्बन्ध में यदि शुद्ध भाषा वैज्ञानिक द्रष्टि से देखा जाय तो परम्परागत रूप से स्रेस्थ भाषाएँ केवल उस स्थान विशेष की बोलियाँ ही होती हैं जो ऐतिहासिक घटनाक्रम के कारण राजनितिक और सांस्कृतिक द्रष्टि से उस क्षेत्र विशेष में महत्व प्राप्त कर गई, निसंदेह किसी विशिष्ठ स्वतंत्र बोली के साहित्य प्रकाशन दर्शन तथा उसके अनेक प्रयोजनों और ब्यापक रूपों में प्रयोग का परिणाम यहाँ होता है कि उस क्षेत्र विशेष की बोली की शब्दावली उन सभी आवश्यक विभेदों के साथ अत्यधिक ब्यापक हो जाती है, जिसके द्वारा वह अपने स्वतंत्र प्रयोग क्षेत्र में अपने नए रूप में संतोष जनक ढंग से काम कर सकती है, इस विचार के सम्बन्ध में कुछ तथ्य भिन्न हो सकते हैं! जो किसी जाती विशेष द्वारा प्रयुक्त बोली के सम्बन्ध में कहे जा सकते हैं, जो केवल अपनी जाती तक ही सीमित रहती है, देश में सामान्यतया सभी आदर्श कही जाने वाली भाषाओँ का जन्म भी उन सभी स्वतंत्र बोलियों से हुआ है, जो समाज के प्रतिष्ठित व सबल वर्ग द्वारा बोली जाती है या प्रयुक्त की जाती है या कहीं न कही उसे राजनितिक या प्रसाशनिक संरक्षण प्राप्त था, यह वास्थाबिकता से परे नहीं है की जिस स्वतंत्र बोली को सबल वर्ग व राजतन्त्र का संरक्षण प्राप्त हो हुआ वह अवश्य ही उस प्रदेश की प्रादेशिक भाषा या आदर्श प्रतिष्ठित भाषा बनकर उभरी!


यहाँ विश्व के चर्चित भाषा वैज्ञानिकों के अनुभव को बाँटना आवश्यक है, भाषा विज्ञानं की शाखा के अंतर्गत प्रादेशिक स्वतंत्र बोली पर हुए एक अनुसन्धान के अंतर्गत एक बात अवश्य स्पस्ट हुई है, कि एक ही स्वतंत्र बोली की उपबोलियों या विबिध बोलियों के बीच विधेयक रेखा खींच पाना असंभव है, विश्व
या देश के उन भागों में या जहाँ राजनीतिक सीमा में सामान्यतय परिवर्तन होते रहते हैं, या जहाँ आदान प्रदान की सीमाएं एक दूसरे देश की सीमा को लाँघ जाती हैं, वहां किसी भाषा विशेष से समझी जाने वाली बोलियाँ भी किसी अन्य भाषा की बोली के सामान ही लगती हैं, क्योँ कि भाषा के शब्दों के आदान प्रदान से स्थानीय भाषा में कुछ शब्द इस प्रकार घुलमिल जाते हैं, जिस को उस भाषा या बोली से अलग करना असंभव हो जाता हैं, यहीं यह कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा की दूर दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले रहवासियों की बोली का कोई स्वतंत्र परिनिस्थित रूप नहीं होता, उनकी बोली को हमेशा एक बोली के रूप में लिया जा सकता है, भाषा के सम्बन्ध में यह एक ऐसा द्रिस्थिकों है जो उस स्वतंत्र बोली के लिखित और साहित्यिक रूप पर आद्हारित है, एक स्वतंत्र बोली के लिए राजनितिक दृष्ठी से यह समाधान प्रस्तुत किया जा सकता कि उस बोली को उस परिवेश में शासन कार्य में प्रयोग किए जाने के लिए किया जाए, जहाँ एक स्वतंत्र बोली को इस प्रकार का संरक्षण प्राप्त हो गया वहां की बोली निशंदेह वहां की परिनिस्थित भाषा या प्रादेशिक भाषा रूप धारण कर लेती है!


प्रायः यह देखा गया है कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ को छोड़कर मध्य हिमाली स्वतंत्र बोलियों को राजनितिक व सांस्कृतिक विराशत के रूप में संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ है, इन भाषाओँ को पूरब में यदि राजतन्त्र का संरक्षण मिला होता तो निशंदेह यह वर्तमान में एक परिनिस्थित भाषा के रूप में उभर कर उत्तराखंड की प्रादेशिक भाषा बन गई होती, मध्य हिमाली क्षेत्र के सम्बन्ध में राजनितिक उथल पुथल माने तो यहाँ केवल गोरखों का ही अधिपत्य रहा, उसके बाद बिर्टिश हुकूमत ने अपने पैर पसारे, परन्तु जो पौराणिक समय से रियासत चलती आ रही थी, उसके अवशेष तो वर्तमान में भी अपनी जड़े जमाये बैठी हैं, परन्तु उस रियाशतदार ने भी अपनी भाषा के संरक्षण के बारे में नहीं सोचा, उसने अपनी स्थानीय भाषा को स्वतंत्र रूप से अपने राज्य की राज काज की भाषा के रूप में प्रयोग नहीं किया, नाही अपने राज्य के शिक्षण संस्थानों में इसमे पठान पठान की ब्यवस्था की, यदि यहाँ की स्वतंत्र बोली को स्वतंत्र रूप से राज काज और पठान पाठन में प्रयोग किया जाता तो यहाँ की भाषा और उसकी लिपि भी पुर्बोत्तर के छोटे छोटे राज्यों के समकक्ष होती और उसमे रचित साहित्य एक परिनिस्थित साहित्य होता, वर्तमान में आवश्यकता है यहं की स्वतंत्र बोली को राजनितिक संरक्षण की!

लेखक : डॉ. बिहारीलाल जलंधरी

2 comments:

  1. बढ़िया! ब्लाग की दुनिया में आपका स्वागत है।
    यदि आप के TEXT कलर में बदलाव कर लें तो पोस्ट पढ़ने में सहजता होगी।

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  2. blog ki is jadoogary nagari me apka swagat hai

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