हम क्षेत्रीय बोलियो का अध्ययन और उसकी पारस्परिक सम्मानता का तुल्नात्मत अध्ययन कर रहे हैं किसी विशेष क्षेत्र में बोली
जाने वाली बोली की स्वाभाविक ध्वनियों की विभिन्नता को खोजकर उन पद्धतियों पर बिचार किया गया है जिनके आधार पर क्षेत्रीय बोलिओं की ध्वनियों की कार्यकारिता तथा परभाव व प्रयोग पर बिचार किया जा सके क्षेत्र में प्रयोग की जनि वाली ध्वनियां ही स्वर के रूप में लय, सुर, सुर्लाहर, आरोह, अवरोह, बलाघात, आदि के रूप में प्रयोग की जाती हैं. यह सभी उस ध्वनि के गुण हैं जो अपने आप में उस क्षेत्र की पहचान समेटे हैं, ध्वनि के इन गुणों की समस्याओं को छोड़कर अपेक्षाकृत अधिक स्पस्ट अंतरों व उन गुणों पर ध्यान केंद्रित किया जाय तौ उसके उपरांत ही बोलीओं की ध्वनियों में कुछ प्रमुख अंतरों के वर्गीकरण भी किया जा सकेगा, इससे निष्कर्ष निकला जा सकता है कि कौन सी बोली की कौन सी ध्वनि महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग उस क्षेत्र में पूर्ण रूप से किया जाता है,
प्रायः यह देखा गया है कि एक बोली में किसी ध्वनि विशेष पर प्रयोग होता है, जब कि दूसरी बोली में उस ध्वनि का अभाव होता है, इस प्रकार के अन्तर कभी तो ध्वन्यात्मक दृष्ठि से परिभाषित किए जाते हैं, वास्तव में एक ही क्षेत्र के दूसरे भाग में बोली में अनेक अंतरों की भांति यह अपेक्षा बोली की अभिनय प्रक्रिया हो सकती है, शब्द समूहों और अन्य तत्तों की भांति ध्वनियों के सम्बन्ध में बोलियाँ धीरे धीरे विघटित होती रहती हैं, तथा उनमे कुछ नयापन आता रहता है, यद्यपि यह विघटन की मात्रा अपनी चरमसीमा पर धीरे धीरे पहुँचती है, परन्तु बोली में विघटन करने वाले तत्तों को केन्द्रीय करण करने वाले प्रभाव कुछ अन्तराल में इनके विपरीत कार्य करने लगते हैं, बोलियों की यद्यपि असंख्य ध्वनियाँ होती हैं, परन्तु उन सभी ध्वनियों का अन्तर महत्वपूर्ण नहीं मना जाता, एक बोली की प्रणाली उसकी महत्वपूर्ण भेधात्मत ध्वनियों का समूह है जिसमे केवल परिवेशगत विभिन्नताओं को छोड़ दिया जाता है या एक समुदाय में वर्गीकृत कर दिया जाता है,
प्रश्न उठता है कि बोली के अध्ययन में ध्वनि प्रणाली की अवधारणा का क्या महत्व है वास्तव में यह विचारनीय है, महाभाष्यकार ने सर्ब प्रथम ध्वनियों को ही स्वर के रूप में लिया है, उसके उपरांत ही ध्वनियाँ और उसके अंगों का वर्णन किया है, यहाँ मुख्य रूप से उन ध्वनियों के उन स्वरों का विवेचन किया जा रहा है जिनका रसाश्वदन के लिए उन्हें कई नामो, उपनामों से अलंकृत किया गया, जब ध्वनि के स्वरों को वासताबिक स्वर मिल जाते हैं! उस समय उनके रसाश्वदन की अपनी एक अलग ही अंत उध्वग्निता उत्पन कर देते हैं, बोलियों में यह स्वर आज भी विद्यमान हैं, जिनको स्वर के साथ मिलकर एक जड़ को चेतन बनाकर थिरकने के लिए मजबूर कर देते हैं, वर्तमान में हमें उनकी पहचान करना आवश्यक है! यहाँ महाभाष्यकार की एक उक्ति का विवेचन करना युक्तियुक्त है, जिसमे बोली की ध्वनियों के स्वरों का विवेचन बड़ी कुशलता से व कुशाग्र बुद्धि से किया गया है!
भवती तद्यथा नाटन् स्त्रियों रंगरतान यो य प्रच्छ्ती, कस्यां यूयम यूयमिति,
अर्थात स्वर अपने आप में राजा है जो ब्यंजन को अपने नियम के आधार पर चलाता है, सामान्य भाषा में कहा जाय की भाषा में ब्यंजनों की दशा उस नारी के समान होती है, उसके अभिनयकाल में जो उससे पूछता है की तुम किसकी हो, वह ख़ुद ही उसे कह देती है में तुम्हारी हूँ, इसी प्रकार भाषा में जो स्वर और उसकी मात्रा जिस ब्यंजन के साथ प्रयुक्त किए जाते हैं, वह ब्यंजन उसी ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं! यहाँ भाषा की ध्वनि तथा उसके स्वर का विवेचन किया जा रहा है, मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखंड की भाषा में भी इस शब्द को बहुत राशिक और लजीज के रूप में प्रयोग किया गया है, स्वर शब्द का अपभ्रंश रूप ही सुर है, जब ध्वनि सुर के मध्यम से प्रवर्तित हुई उससे आनंदित समुदाय ने उसे अलंकरण व उपमाएँ देना आरम्भ कर दिया कालांतर में यही सुर शब्द सुरा में परिवर्तित हो गया, किसी अति स्वादिस्ट खाध्य के रस को यहाँ सुरा कहा जाता है, वास्तबिक रूप में यह स्वर का ही उपमान है, जिसने उस क्षेत्र की बोली और उसकी ध्वनियों की रोचकता व मिठास को विलुप्त होनो से रोकने के लिए एक एसा उपमान प्रदान किया जो समाज से जीवन पर्यंत अलग नहीं किया जा सकता, यह भाषा की एक बहुत बड़ी विशेषता है जो कहीं न कहीं अपने निशान छोड़ती रहती है!
हम वाल्यवस्था से देवनागरी के रंग में रंग कर अपनी बोली के स्वरों को आज तक नहीं पहचान पाए हैं, हमने अपनी भाषा को देवनागरी में प्रयोग कर अवस्य कामचलाऊ बना दिया परन्तु हमारी भाषा बिद्वानों के लिए अवस्य निशान छोड़ती जा रही है, उत्तराखंड की भाषा के ध्वनि अक्षरों की जो खोज हुई है, उन्हें *गों आखरों* का नाम दिया है, यही *गौं आखरों* उत्तराखंड की क्रमशः दोनों गढ़वाली कुमोनी बोलियों के साथ साथ jounsari, रवाई, भोजपुरी, magadhi, avadhi, maithali, tirhari, vaiswari, bagheli, bundeli, kannoji, आदि बोलियों को देवनागरी लिपि के माध्यम से लिखने में पूर्ण रूप से सक्षम होंगी, देवनागरी के साथ साथ इन *गों आखरों* के जुड़ने से उत्तरी भारत में देवनागरी के माध्यम से लिखी जाने वाली भाषाई त्रुटियों का समाधान हो सकेगा!
जी- 4/87, चान्द कोलोनी, तुगलकाबाद, नई दिल्ली - 110044
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