Wednesday, February 4, 2009

बोली में लिखे साहित्य पर संदेह क्यों

डॉ. बिहारी लाल जलंधरी जी

यह देखा गया है की बोली में लिखा गया साहित्य प्रायः संदेह की दृष्ठि से देखा जाता है, यह वास्तविकता से परे नहीं है की किशी भी बोलो में साहित्य लिखने वाले साहित्य कारों को प्रायः परिनिष्ठित भाषा की शिक्षा प्राप्त होती है, और वे स्वयम को उससे अप्रवाहित नहीं रख पाते, यहाँ तक देखा गया है की कभी कभी तो बोली में साहित्यकारों का चिंतन प्रिनिश्तित भाषा में होता है, और बोली का साहित्यकार उसे बोली की ध्वनि संरचना और वातावरण के अनुसार अनूदित मात्र कर देते हैं, बोली में साहित्य की रचना करने वाले उन साहित्यकारों के शब्द समूह प्रिनिस्थित भाषा से अत्यधिक प्रभावित होता है और उससे बोली का साहित्य रचा जा रहा है उसी के आधार पर उसकी शैली, वाक्य रचना और उनकी अभिब्यक्ति भी होती है!

यहाँ हम उत्तर भारत के म्ध्यहिमालाई बोली गढ़वाली कुमौनी की बात कर रहे हैं, क्यूँ की इन बोलियों को भाषा के दर्जा आज तक भी नहीं मिल पाया है, यह जानने योग्य अवश्य है की किसी भी बोली का साहित्यकार अपनी बोली को भाषा के रूप में ही मानकर
चलता है परन्तु जब वह साहित्य के रूप में परिणत होने की दिशा की और बढ़ता है तो उसे अन्य द्वारा अस्वीकार करते हुए बोली का साहित्य कह कर किनारे कर दिया जाता है!

वस्तुता गढ़वाली कुमौनी भाषा के साहित्य स्वरुप के आधार पर हम यह नहीं कह सकते की जनता में प्रस्तावित इन बोलियों का मोलिक स्वरुप किस प्रकार का है, क्यों की इन बोलियों में प्रभूत साहित्य सर्जन नहीं हुआ जिस प्रकार पोरानिक समय में अवधी और ब्रज में हुई थी, कहते हैं की बोली यदि समाज के अशिक्षित वर्ग तक ही सिमित रह जाती है तो इससे साहित्य के स्रोत नहीं फूटते हैं, बोली का साहित्य उन्ही क्षेत्रों में प्रकट होता है जहाँ पर उसे सामाजिक सम्मान प्राप्त होता है और शिक्षित वर्ग उस में बोलने के लिए अभ्यस्त होता है, इसमे जो सहियाकर या लेखक बोलियों से अनभिज्ञ हैं, तथा बोलियों में लिखित साहित्य और उसके साहित्यकार को अपदस्थ समझते हैं, वे प्रायः उनके हया और ब्यंग्य की रचना करने का प्रयत्न करते हैं, किंतु जिस क्षेत्र में बोली अब भी सम्पूर्ण समाज के दैनिक बिचार बिनिमय का माध्यम है और समाज के प्रतेक वर्ग द्वारा बोली जाती है, वहां वह साहित्य के रूप में प्रिपुस्ती होकर किसी भी परिनिस्थ भाषा की समानता कर सकती है, बोलीओं के प्रभूत साहित्य में भाषा के सम्बन्ध में तुलशी दास जी ने अपनी एक कृति में एक स्थान पर कहा है,

*भाषा भनति भोरी मति भोरी,
हैन्सिबे जोग हँसे नहीं खोरी*

देखा जाय तो उत्तराखंड में गढ़वाली कुमौनी का पोरानिक साहित्य उपलब्ध ही नहीं है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है की
तत्कालीन परिस्थिति में यहाँ अशिक्षित समाज था, जिसे बोली को साहित्य के रूप में आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जो आज हमारे पास पोरानिक साहित्य के रूप में उपलब्ध हैं वह हैं ताम्र पत्र, कबिता, लोकगीत, मुहावरे, तथा बिभिन्न त्योहारों पर प्रयुक्त होने वाले मंगल गीत, इसके अलावा भी मंत्र शाश्त्रों की रचना भी कुछ हद तट बोलियों में ही हुई, जो आज अप्राप्य मात्र है, देवी देवताओं के आह्वाहन मन्त्र जागर केवल मोलिक रचना ही है, कालांतर में जिन्हें कलामबध करने की आवश्यकता ही नहीं समझी गई, इसी प्रकार विध्याराज और वैधंग भी अपने वारिश को अपनी विद्या मुखाग्र ही सिखाते हैं!


गढ़वाल और कुमाओं को देव भूमि अवश्य माना गया है परन्तु पोरानिक कृतियों में यहाँ साहित्य का बसंत कभी नहीं देखा गया,
ना ही यहाँ की सत्ता पर कायम रहनेवाले राजे महाराजाओं ने अपनी पोली को महत्व दिया, जब कभी संदेशों के आदान प्रदान या
शिलालेखों के लिखने की बात सामने आई तब तत्तकालीन परिनिस्थित भाषा संस्कृत का प्रयोग किया गया, जिस भाषा से आम जनमानस दूर था, आम जन की बोली को आम जन तक ही सिमटा कर रख दिया, उसे राजकाज स्थर तक कभी प्रयोग नहीं होने दिया, जिस वजह से यहाँ की दोनों बोलियाँ वह स्थान प्राप्त नहीं कर सकी जो सम्मान स्थान उसे उसके बोलनेवालों से मिलता था!

उत्तराखंड में इन दोनों बोलीओं की दशा आज भी ज्यों की त्यों बनी है, पूरब काल में राजा महाराजाओं, सभासदों मंत्रियों की प्रिया भाषा संस्कृत हुआ करती थी, सभी कार्य संस्कृत में हुआ करते थे आम जन की भाषा को महत्वा नहीं दिया जाता था ठीक उसी प्रकार की स्तिथि आज भी है, कल के महाराजाओं का स्थान आज के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रियों ने ले लिया है, जिनकी अपनी भाषा आम जन की भाषा को छोड़कर बिदेशी भाषा या रास्त्रियाभाषा है, या इन भाषाओँ की और अधिक झुकाव है, जो बोली हमारी कल थी वही बोली हमारी आज भी है, यदि इन बोलियों को पूरब काल से ही शिक्षित बर्ग प्रयोग करता तो निश्चित ही आज हमारी भी मान्यता प्राप्त भाषा होती, इसकी अपनी एक अलग लिपि होती तथा हमरी भाषा अन्य भाषाओँ की तरह परिनिस्थित भाषा होती, इसका ब्याकरण भी परिनिस्थित होता परन्तु बर्तमान की कुछ दशाब्दियों में उत्त्रखन में जो साहितिक चेतना का जो उद्भव हुआ है वह अवश्य ही बोली को भाषा की और परिणत करने के लिए पहली सीधी का कार्य है, उत्तर भारतीय बोलियों में जो अधिकांश देवनागरी लिपि के माध्यम से लिखी जाती हैं, इन प्रतेक बोली को देवनागरी लिपि में माध्यम से लिखने में कुछ अधूरापन रह जाता है, चाहे आप गंगा के दोआबा की और जाइये या अवध या बिरज की और, इन सभी बोलियों को देवनागरी लिपि में लिखने पर उनका अपनापन स्थानीय अक्श्रभाव से छिप जाता है, खाश तोर पर उत्तराखंड की गढ़वाली कुमौनी जिसे एक मायने में अन्पधों की भाषा भी कहा जा सकता है, क्योंकि पदेलिखे लोगो ने जिस भाषा के लिए कार्य किया है वह आज अपने विकाश की सीमा तक पहुची है, उत्तराखंड में पूरब कल से इसप्रकार कुछ नहीं हुआ है परन्तु पिछली दो सताब्दियों से सेव्नाग्री के माध्यम से जितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ है वह अवश्य ही उत्तराखंड की बोली को भाषा की दिशा की और ले जाने में मददगार साबित होगा यह हमारा मानना है!

एक समय एसा अवश् आएगा जब उत्तराखंड की गढ़वाली कुमौनी भाषा साहित्य को बोली के साहित्य से संदेह हट जाएगा और यह इसका साहित्य अन्य भाषाओँ के साहित्य की तरह परिनिस्थित होकर विद्यार्थियों तक पहुंचेगा!

लेखक : डॉ. बिहारीलाल जलंधरी
जी- 4/87, चान्द कोलोनी, तुगलकाबाद, नई दिल्ली - 110044
फोन 0-98-6811-4987, 011-2609-2074, ईमेल : bjalandhari@yahoo.com

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